जैसी मेरी तबियत है एक आज़ाद घुमक्कड़ की कुछ वैसी ही फितरत बाबा नानक की भी थी | उनका व्यक्तित्व कुछ इस तरह से बहुआयामी था कि आप उनका जीवन वृत्तांत पढ़ते हुए उसमे एक आदर्श पुत्र, भाई, शिष्य, पति तथा पिता के रूपों के साथ साथ एक धार्मिक प्रचारक, एक गुरु, एक सूफी, एक समाजसुधारक, एक बेहतरीन काव्य शास्त्र का ज्ञाता और एक विलक्षण घुमक्कड़ की छवि पाते हैं| अपनी इस जीवन यात्रा में वह इतना घूमे कि आज सैंकड़ों वर्षों पश्चात भी हम उनके द्वारा विचरित सही सही स्थानों को चिन्हित नहीं कर पाए हैं | आज भी दुनिया भर में कई स्थान ऐसे हैं जिनके बारे में यह दावा किया जाता है कि गुरु नानक अपने देशाटन के दौरान उन जगहों पर गए थे, परन्तु उन सभी जगहों को अभी एतिहासिक कसौटीयों पर कसना बाकी है | अत: स्वाभाविक है कि इस blog पर अपनी पहली पोस्ट मुझे ऐसी ही एक शक्शियत को समर्पित करणी चाहिए जो सिख धर्म के प्रवर्तक तथा प्रथम गुरु होने के साथ साथ सही अर्थों में एक समाजसुधारक तथा समाज के पथ प्रदशक भी थे.......
"सुणी पुकार दातार प्रभ, गुर नानक जग माहि पठाया।"
-भाई गुरदास
साल 1400 के आसपास का समय था, और देश में मुगल सल्तनत का साम्राज्य। आम जनता सदा की ही तरह दुखी और असहाय थी। जब सैनिक और राजनैतिक तौर पर सत्ता को चुनौती देने के हालात नही होते अथवा अभी वो समय इतना परिपक्व नही हुआ होता कि कोई एक ऐसा सशक्त नेतृत्व उभर सके जो एक स्थापित सत्ता से लोहा ले सके तो धर्मभीरु लोग अक्सर ही धर्म की शरण में जाते हैं क्यूँकि बुरी तरह से निराश और हर तरफ से ठुकराए हुए लोगों की अंतिम शरण स्थली वही होती है। परन्तु उस दौर में हिन्दू धर्म भी छुआ छूत, वर्ण व्यवस्था और धार्मिक कुरीतियों के मकड़ जाल में कुछ इस कदर उलझा हुआ था कि एक व्यापक और समग्र तौर पर वो भी समाज के सभी दबे कुचले और निःसहाय लोगों की एक सशक्त आवाज बन कर उभर न सका।