Thursday, 31 December 2015

तू जहाँ जहाँ रहेगा.... भाग 5 ~~ by a s pahwa




कुछ पलों की नीरव परन्तु दमघोंटू चुप्पी के बाद अचानक ही राधिका के शरीर ने एक जुम्बिश ली और जोर-जोर से अपने हाथ-पाँव पटकने शुरू कर दिए । फिर एकाएक ही उसने अपने दोनों हाथों को फर्श के सामान्तर खोला और अपनी पूरी शक्ति से अपने हाथों को आगे-पीछे ज़ोर से लहरा कर पीछे दिवाल की तरफ पटका। इतनी शक्ति थी

Wednesday, 30 December 2015

तू जहाँ जहाँ रहेगा.... भाग 4 ~~ by a s pahwa


ससुर ने बहु के पिता को फोन कर सारी वस्तुस्थिति से अवगत करवाया, कुछ टोह भी लेने का प्रयास किया, परन्तु उन्होंने किसी भी तरह की जानकारी से साफ़ इंकार कर दिया। स्वयं उनके लिए ही यह घटना अप्रत्याशित थी। खैर, उन्हे बता दिया गया कि कल सुबह ही उनका बड़ा बेटा तथा बहू, उनकी बेटी को कुछ दिनों के लिए छोड़ने आ जायेंगे। भेजना क्यों आवश्यक है? यह बिन बताए ही राधिका के पिता समझ पा रहे थे कि उनकी बेटी के ऐसी अवस्था में होने पर उसके द्वारा या फिर उसके साथ कुछ

Tuesday, 29 December 2015

तू जहाँ जहाँ रहेगा.... भाग 3 ~~ by a s pahwa भाग 3


भाग 3
पूर्व प्रकाशित अंक

तू जहाँ जहाँ रहेगा....                                               भाग 1
तू जहाँ जहाँ रहेगा....                                               भाग 2

ऐसा नही था कि राधिका किस व्याधि अथवा मनोग्रन्थि से पीड़ित है, अपने स्तर पर किशन ने जानने का प्रयत्न नहीं किया था। यदि पति-पत्नी समझदार हों तो दोनों एक दूसरे के ऐसे मित्र हो सकते हैं जिसके आगे दुनिया का कोई भी रिश्ता और मित्रता की कसौटी ठहर नही सकते। कमरे से बाहर उसने अपनी पत्नी से पूछने का अनथक प्रयत्न किया, परन्तु जैसे ही वह इस प्रंसग को छेड़ने का प्रयत्न करता, राधिका इस घटनाक्रम से बचना चाहती। एक घबराहट के अलावा वो कुछ कह नही पाती थी।

तू जहाँ जहाँ रहेगा.... ~~ by a s pahwa भाग 2



खेत में जहाँ, बड़े भाई प्रदीप ने छोटे भाई किशन को भेजा था, तुरन्त ही वहाँ पहुंचा। देख कर उसे झटका सा लगा कि 4 दिन पहले का नवविवाहित भाई, निराशा और परेशानी के गर्त में डूबा सा अपने खेत की एक मुंडेर पर गुमसुम सा बैठा है और यूँ ही निरुद्देश्य मिटटी के ढेले आस पास से उठा-उठा कर बेध्यानी में खेत में फेंक रहा है। दीन दुनिया से बेखबर! 


प्रदीप ने छोटे भाई किशन के कन्धे पर हाथ रखा, कई परिस्थतियो में शब्द गौण हो जाते हैं, मौन और आँखों की भाषा ही महत्वपूर्ण  हो जाती है ! विश्वास और स्नेह का एक संकेत ही जैसे बिना कुछ कहे ही बहुत कुछ कह जाता है ! बस, जैसे इस एक पल का ही किशन को इंतज़ार था ! कई दिनों से किशन जो अपने भीतर ही भीतर घुट रहा था, जो वो देख और सहन कर रहा था, किसी से लाज, शर्म और संकोच से कुछ कह भी नही पा रहा था, पर अंदर ही अंदर बेहद डरा हुआ होने की वजह से भयभीत हो इस नारकीय यंत्रणा को किसी भी प्रकार से अकेला ही सहने को विवश था। 

तू जहाँ जहाँ रहेगा.... ~~ by a s pahwa भाग 1


 भाग 1 

क्या वास्तव में भूत प्रेत जैसी कोई चीज़ होती है या फिर यह मानव मात्र के डर से उपजी केवल एक कल्पना मात्र ही है | सही सही कहना तो असम्भव है, क्यूंकि विज्ञान केवल प्रत्यक्ष को मानता है जिसे तर्क की कसौटी पर कसा जा सके | परन्तु यह भी एक वास्तविकता है कि विज्ञान केवल लौकिक जगत की विद्या को पहचानता है| एक चिकित्सक की शरीर के आंतरिक अंगों सम्बन्धी जानकारी उस जगह पर समाप्त हो जाती है, जो उसके एक्स-रे अथवा स्कैन में नहीं आती | यह विज्ञान का एक अंतिम चरण है कि परोक्ष नहीं, वह उपस्थित नहीं! परन्तु आधात्मिकता के स्तर पर शरीर में आत्मा भी है जो किसी भी वैज्ञानिक यंत्र में नहीं आती, तो क्या उसका अस्तित्व भी नकार दें?

Monday, 21 December 2015

भारत देश के सबसे प्रथम घुम्मकड को मेरा प्रणाम


जैसी मेरी तबियत है एक आज़ाद घुमक्कड़ की कुछ वैसी ही फितरत बाबा नानक की भी थी | उनका व्यक्तित्व कुछ इस तरह से बहुआयामी था कि आप उनका जीवन वृत्तांत पढ़ते हुए उसमे एक आदर्श पुत्र, भाई, शिष्य, पति तथा पिता के रूपों के साथ साथ एक धार्मिक प्रचारक, एक गुरु, एक सूफी, एक समाजसुधारक, एक बेहतरीन काव्य शास्त्र का ज्ञाता  और एक विलक्षण घुमक्कड़ की छवि पाते हैं| अपनी इस जीवन यात्रा में वह इतना घूमे कि आज सैंकड़ों वर्षों पश्चात भी हम उनके द्वारा विचरित सही सही स्थानों को चिन्हित नहीं कर पाए हैं | आज भी दुनिया भर में कई स्थान ऐसे हैं जिनके बारे में यह दावा किया जाता है कि गुरु नानक अपने देशाटन के दौरान उन जगहों पर गए थे, परन्तु उन सभी जगहों को अभी एतिहासिक कसौटीयों पर कसना बाकी है | अत: स्वाभाविक है कि इस blog पर अपनी पहली पोस्ट मुझे ऐसी ही एक शक्शियत को समर्पित करणी चाहिए जो सिख धर्म के प्रवर्तक तथा प्रथम गुरु होने के साथ साथ सही अर्थों में एक समाजसुधारक तथा समाज के पथ प्रदशक भी थे.......
  

"सुणी पुकार दातार प्रभ, गुर नानक जग माहि पठाया।"
                                                                      -भाई गुरदास


साल 1400 के आसपास का समय था, और देश में मुगल सल्तनत का साम्राज्य। आम जनता सदा की ही तरह दुखी और असहाय थी। जब सैनिक और राजनैतिक तौर पर सत्ता को चुनौती देने के हालात नही होते अथवा अभी वो समय इतना परिपक्व नही हुआ होता कि कोई एक ऐसा सशक्त नेतृत्व उभर सके जो एक स्थापित सत्ता से लोहा ले सके तो धर्मभीरु लोग अक्सर ही धर्म की शरण में जाते हैं क्यूँकि बुरी तरह से निराश और हर तरफ से ठुकराए हुए लोगों की अंतिम शरण स्थली वही होती है। परन्तु उस दौर में हिन्दू धर्म भी छुआ छूत, वर्ण व्यवस्था और धार्मिक कुरीतियों के मकड़ जाल में कुछ इस कदर उलझा हुआ था कि एक व्यापक और समग्र तौर पर वो भी समाज के सभी दबे कुचले और निःसहाय लोगों की एक सशक्त आवाज बन कर उभर न सका।