Thursday 14 January 2016

40 मुक्ते (40 Immortals, 40 mukte, 40 ਚਾਲੀ ਮੁਕਤੇ) और माघी



दुनिया के किसी भी हिस्से में जब कोई भी गुरु नानक नाम लेवा सिख अरदास करता है, उस अरदास में एक शब्द आता है, " चाली मुक्ते ", चाली अर्थात चालीस (40) और मुक्ते, बहुवचन है मुक्त का ! मुक्त संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है liberation यानि जन्म मरण के फेर से आजाद होकर मोक्ष की प्राप्ति (Emancipation!)

ऐसा क्या किया था उन चालीस शूरवीर यौद्धाओं ने कि आज करोड़ों लोग अपनी अरदास में उन्हें याद करते है ? इसे जानने के लिए हमे थोडा सा पीछे जाना होगा। इस घटना के घटित होने से कुछ पहले की घटनाओं पर...

गुरु गोबिंद सिंह जी की अगुवाई में सिख कौम मुगल सेनाओं से अपने अस्तित्व को बचाये रखने की लड़ाई लड़ रही है ! आनदपुर साहिब छोड़ने के पश्चात विकराल रूप धारण कर चुकी सरसा नदी पार करने के प्रयास में बची-खुची सिख सेना और गुरु जी का परिवार बिछुड़ चुका है। कुछ पानी के तेज बहाव में बह कहीं और निकल गए तो कुछ इसकी गोद में ही सदा के लिए समा गए ! गुरु, सिख और परिवार सभी अलग अलग हो चुके हैं। और इधर मुगल सेना ने विश्वासघात करते हुए अपनी सेनाएँ गुरु जी और उनके सिखों के पीछे लगा  दीं।

एक तरफ सरसा नदी का तेज बहाव, रात्रि का गहन अन्धकार और दूसरी तरफ पीछा करती मुगल सेना... सिख बिछुड़ गए, परिवार अलग अलग हो गया और साथ ही जुदा हो गया माझा क्षेत्र के चालीस सिखों का एक जत्था, जो नदी के बहाव के साथ इनसे बिछुड़ कर किसी और दिशा में निकल गया।

इधर गुरु जी और उनके साथ के सिख जिन्होंने इस नदी को पार कर लिया अब सुरक्षित जगह की तलाश में उन्होंने चमकौर की गढ़ी में अपना ठिकाना बनाया, जहाँ से वो पीछा करते दुश्मन को टक्कर दे सकें। मुगल सेना भी उनका पीछा करते करते इस चमकौर की गढ़ी तक तो पहुँच गई, पर उसे हासिल नही कर पा रही है । सिख यौद्धा हैं तो मुट्ठी भर, पर हैं बा-कमाल ! छिटपुट लड़ाई होती, मुगल सेना की कोई एक टुकड़ी गढ़ी कब्जाने के प्रयास में आगे बढ़ती, सिखों का एक जत्था बाहर आता और उन मुगलों को झटका कर वापिस लौट जाता। जब इस प्रकार से गढ़ी पर कब्जे के असफल प्रयास में  सैंकड़ो मुगल सिपाही अपनी जान गवाँ बैठे तो उनके सिपाहसलाहर वजीर खान ने आदेश दिया कि इस तरह की लड़ाई में इन्हें हराना मुश्किल है, अतः इस गढ़ी को ही घेर कर इनकी रसद बन्द कर दी जाये, हम भी देखें की बिना खाने-पीने के सामान के यह कितने दिन टिक सकते हैं।

मगर, असली नेतृत्व की पहचान और सैनिकों की जवां मर्दी का इम्तिहान ऐसे ही मुश्किल दौर में होता है । गुरु गोबिंद सिंह इस परीक्षा में खरे उतरे । अपने सीमित साधनो और सिखों की कम गिनती के चलते उन्होंने अपने साथ के सभी शूरवीरों को पाँच-पाँच के दस्तों में बाँट दिया। और उनकी कमान अपने दो पुत्रो समेत अन्य जरनैलों के हाथ में दे दी।
फिर क्या था, अवसर देखते ही इन सिंहों के दस्ते, एक एक कर किसी एक तरफ से दुश्मन सेना पर टूट पड़ते। जयकारे लगाते हुए शत्रु सेना को गाजर-मूली की तरह काटते, फिर किसी एक तरफ से रास्ता बना, अपने लिए रसद इत्यादि का इंतज़ाम कर गढ़ी में वापिस लौट जाते ।

परेशान वज़ीर खान मायूस हो, अपनी सेना को यूँ ही कटता देखता रहा,  आखिर कैसे गुरु और मुट्ठी भर सिंहों को काबू करे ?, गढ़ी पर कब्जा जमाना, उसकी हज़ारों की इस फ़ौज़ के आगे एक अबूझ पहेली बन चुका था। आगे बढ़ इस गढ़ी को कब्जाने की कोई तरकीब उन बहादुर यौद्धाओं के आगे काम नही कर रही थी, और पीछे हटने पर बहुत अपमान ! सम्भव था कि दिल्ली की सल्तनत उसकी इस नाकामी के चलते उसे ही इस फ़ानी दुनिया से रुखसत कर उसकी जगह किसी और को ही वज़ीर बना दे।

अतः उसने भी सभी विकल्पों को छोड़ते हुए, भले ही कितना समय और लग जाये, चुपचाप इस गढ़ी को घेर कर रखने में ही अपनी सलामती समझी, जिससे अंदर रुके हुए सिंह परेशान हो जायें और गढ़ी से बाहर निकलने को मजबूर हो जायें !

हुक्म की तालीम हुई और मुगल सेनाएँ गढ़ी के चारो तरफ उन रास्तों को रोक कर बैठ गई, जिन से आस-पास के गाँवों से सिखों को रसद अंदर पहुँच रही थी। परन्तु फिर भी ये शूरवीर मौका मिलते ही, यदा-कदा बाहर निकलते, और दुश्मन की ही रसद लूट कर फिर वापिस आ जाते !

परन्तु इस सबकी भी एक सीमा होती है ! अंदर कुछ ही सिख और बाहर टिड्डी दल की तरह हजारों लाखों की संख्यां में मुगल सिपाही ! इन  झड़पों में सिख सिपाहिओं की तरफ से भी शहादतें जारी थी और इसी क्रम में कुर्बानी की सर्वोच्च परम्पराओं को कायम रखते हुए गुरु जी के दो पुत्र साहिबजादा अजीत सिंह और साहिबजादा जुझार सिंह भी काम आ चुके थे ! अंततः यही निर्णय लिया गया कि अब इस गढ़ी में अधिक समय रुकना सही नही, और मौका लगते ही रात के किसी प्रहर में दुश्मन सेना को चौंकाते हुए गुरु साहिब और बाकी बचे सिखों ने उस गढ़ी को छोड़ दिया ! मुगल सेना को इसकी लेशमात्र भी आशा नही थी, अत: जैसे ही उन्होंने सिखों को गुरु साहिब के साथ बाहर आते देखा वो डर कर भाग खड़े हुए ! उनके बीच मची इस घबराहट और भगदड़ का लाभ उठा सभी सूरमाओं ने उस गढ़ी से अलग खिदराणे की तरफ रुख किया ! और फिर वहीँ एक ढाब(झील) के समीप डेरा जमा लिया !

जैसे ही वज़ीर खान को इस घटना का पता चला, उसे अपने सैनिकों की इस कायराना हरकत पर बहुत गुस्सा आया, परन्तु अब किया भी क्या जा सकता था सिवाए एक बार फिर से पूरी फ़ौज का गुरु साहिब का पीछा करने के !
इधर भाई महा सिंह के नेतृत्त्व में 40 सिखों का जो जत्था सरसा में बिछुड़ कर अपने घरों की तरफ निकल गया था, जब उन्हें गुरु साहिब के चमकौर में होने का पता चला तो एक बार फिर पूरा दल एक नई उमंग और इच्छाशक्ति के साथ गुरु की सेना का साथ देने निकल पड़ा !

खिदराणे की ढाब(झील) से कुछ कोस दूर ही उन्हें पता चला कि वज़ीर खान की अगुवाई में एक बहुत बड़ा दुश्मन का टिड्डी दल गुरु साहिब को घेरने के लिए आ रहा है, अब समय नही रह गया था कि उस ढाब तक पहुँच गुरुजी तक पहुँचा जा सके और उन्हें आने वाले इस आसन्न खतरे से अवगत करवाया जा सके ! तय हुआ कि ढाब से कुछ फर्लांग पहले ही किसी सही जगह पर अपना मोर्चा जमाया जाए और दुश्मन की सेना को यहीं उलझा लिया जाए ! इससे गुरु साहिब और सिखों को भी दूर से ही दुश्मन का पता चल जाएगा !

और फिर जैसा नियत था, रास्ते के दोनों तरफ ऊंचे टीलों पर इन सिंह शूरवीरों ने अपने मोर्चे सम्भाल लिए और जैसे ही दुश्मन सेना वहाँ से गुजरी, जो बोले, सो निहाल के जैकारों के बीच उन्हें गाजर-मूली की तरह काटना शुरू कर दिया !
यह हमला इतना अप्रत्याशित और भयंकर था कि आजम खान की सेना भौंचक्की रह गई, जो आगे निकल चुके थे उन पर गुरु साहिब के तीरों और बाकी सिखों के हमले नाज़िल होने लगे ! पीछे वालों को कुछ समझ नहीं आया ! यह अचानक हमला कहाँ से हो गया ! दो तरफा हमले घिर चुकी मुगल फ़ौज के पाँव उखड़ने लगे ! 40 सिख यूँ लड़ रहे थे कि उनके आगे ये विशाल सेना भी बेबस हो गयी ! हथियार खत्म होने की सूरत में सूरमा सिंह मोर्चा छोड़ बाहर आते, तलवार के प्रताप से दर्जनों सिपाहिओं को झटकाते हुए अंत में खुद भी कुर्बानी पा जाते !

इधर इन चालीस सिक्खों के छोटे से दल ने सैंकड़ों हजारों मुगल सैनिकों को मौत के घात उतारा तो उधर दूसरी तरफ से भी मुगल सेना पर हमला जारी था ! मई की चिलचिलाती गर्मी, मुगल सेना प्यास और सिखों के भीषण प्रतिरोध से जल्द ही बेहाल हो गई ! अत: उनके पाँव उखड़ते देर नही लगी और कुछ ही देर में बची-खुची मुगल सेना अपने लाव-लश्कर के साथ उलटे पाँव पीछे की तरफ भाग निकली !

युद्ध समाप्त हुआ, निर्णायक रूप से इस युद्ध में इन शूरवीरों की वीरता के बदौलत, सिख योद्धा विजयी रहे थे ! मुगल सेना के मैदान छोड़ते ही गुरु साहिब अपने साथिओं के साथ तुरंत उस जगह पहुंचे जहाँ इन वीरों ने अपने लाशानी पराक्रम से मुगल सेना के दांत खट्टे कर उन नाकों चने चबवा दिए थे ! अधिसंख्य अपनी कुर्बानिओं को पा चुके थे, केवल भाई महा सिंह की साँस अटकी थी, अपने गुरु से इस बात की क्षमा मांगने के लिए कि सरसा में उनसे बिछुड़ कर वो उनके साथ न रह पाए! गुरूजी ने भाई महा सिंह के सर को गोद में ले प्यार से हाथ फेरा ! बस, जो आखिरी ख्वाइश थी वो पूरी होते ही भाई महा सिंह ने भी अपने प्राण छोड़ दिए !

ढाब छोड़ नीचे आ चुके बाकी सिखों ने भी इन शूरवीरों को प्रणाम किया और उनके पार्थिव शरीरों को अग्नि के सुपर्द किया ! गुरूजी का आशीर्वाद मिला कि तुम आज से मुक्त !

इन वीरों के शौर्य और सम्मान को महत्व देने के लिए और कहीं गुजरते वक्त के साथ इनकी कुर्बानी कहीं इतिहास के पन्नों में ही दफन होकर न रह जाए, सिख पन्थ द्वारा प्रतिदिन पढ़ी जाने वाली अरदास में स्थान देकर इनकी कुर्बानी को सदा सदा के लिए अमर का दिया गया !

यह थी इस पूरे घटनाक्रम की असल दास्तान ! पर पता नहीं कब, क्यूँ और कैसे इसका एक अलग रूप सिख कौम को परोस दिया गया और इतने सालों में हमारे प्रचारकों ने बेहद भावनापूर्ण तरीकों से इसे सुना सुना इतना प्रचारित भी कर दिया कि असल कहीं दब सा ही गया ! परन्तु मैंने उसे महत्व न देते हुए प्रयास किया है कि सही तथ्य ही आपके सामने रखे जायें !
इस घटना को लेकर, अभी प्रचलित कथा के अनुसार जब मुगल सेना ने गढ़ी को घेर लिया तो अंदर फँस गये सिक्खों को स्थिति बिगड़ने लगी ! गढ़ी के अंदर सिख,खाने-पीने की कमी के कारण निढाल होने लगे, कुछ बीमार भी हो गए। गुरु का आसरा और संग तो था, फिर भी कुछ सिखों का मन आखिरकार डोलने ही लगा!

माझे के इन सिखों का नेतृत्व किया भाई महा सिंह ने और गुरूजी से कहा कि बस, अब हम यहाँ से जाना चाहते हैं। साथी सिखों की लानत-मलामत का भी जब उन पर कोई प्रभाव नही पड़ा और वे अपने निश्चय पर अडिग रहे तो गुरु जी ने उन्हें कहा, तुम इस विकट समय में अपने गुरु और साथियों को छोड़ कर जा रहे हो तो जाओ, तुम्हे कोई नही रोकेगा, पर एक वचन(बेदावा) लिखते जाओ कि हम आज से आपके सिख नहीं और आप हमारे गुरु नहीं!

इस धर्मसंकट को भी पार करने में उन्हें कोई हिचक नही हुई और एक के बाद एक कुल चालीस सिखों ने यह बेदावा( वचनपत्र) अपने नाम लिख कर दे दिया। और फिर रात के गहन अन्धकार में मुगल सिपाहियों के घेरे को चीरते हुए अपने घरों की तरफ निकल चले!

सोचा तो था कि घर पहुँच कर सुख-शान्ति मिलेगी, परिवार का आनंद और माँ-बाप का सानिध्य मिलेगा, पर मिली तो केवल लानतें ! घर से भी, समाज से भी, सम्बंधियों से भी ! माँ-बाप ने उस दिन को कोसा जिस दिन यह कपूत उनके घर जन्मे थे, पत्नियों ने चूड़ियों की सौगात दे कर कहा कि तुम घर सम्भालो, हम अपने गुरु की मदद को जाएँगी, बच्चों ने भी नफरत से मुँह फेर लिया!

पश्चाताप और ग्लानि से भरे ये चालीस आपस में मिले और फिर लौट पड़े वापिस चमकौर की तरफ अपना माफीनामा लेकर !
बाकी की घटना उसी प्रकार है कि उन्होंने अपनी वीरता से स्वयम को कुर्बान करते हुए मौत को गले लगाया और दुश्मन सेना को भागने पर मजबूर कर दिया ! पर साथ ही इसमें एक भावनात्मक पक्ष जोड़ दिया गया कि जब इस युद्ध में विजयी होने के पश्चात गुरु साहिब वहाँ पहुंचे तो भाई महा सिंह में प्राण बाकी थे! गुरु साहिब ने भाई जी का सर गोद में रख कहा, महा सिंह मांग क्या माँगता है! तो महा सिंह ने हाथ जोड़ कर कहा, गुरूजी बस उस बेदावा नु फाड़ देयो ते टुट्टी जोड़ लवो!( उस वचन पत्र को फाड़ दो और टूटे हुए सम्बन्ध फिर से जोड़ लो!)

बहरहाल, चालीस मुक्तों की शहादत सिक्ख इतिहास की एक अमुल्य धरोहर है ! और खिदराणे के इस स्थान को नाम मिला “मुक्तसर“ साथ ही उस ढाब को सरोवर का स्वरूप दे, मुक्तसर गुरूद्वारे का ही एक भाग बना दिया गया !

पंजाब में मुक्तसर स्थित है इसके दक्षिण -पश्चिम भाग यानि मालवा अंचल में दिल्ली से करीब 400 किमी दूर, जिसे 2012 में तहसील बनाकर श्री मुक्तसर साहिब नाम दिया गया है। मुक्तसर में इस गुरूद्वारे के अतिरक्त और भी अनेक ऐतिहासिक गुरुद्वारें है।

यह घटना है 22 बिसाख यानि 29 दिसम्बर 1705 की ! परन्तु इसे 14 जनवरी को क्यूँ मनाया जाता है ?
सम्भवतः 14 जनवरी आदिकाल से ही भारतीय समाज में एक महत्वपूर्ण दिन रहा है ! 14 जनवरी से एक नवीन  महीने (माघ) की शुरुआत होने के साथ साथ सूर्य के उत्तरायण (Summer Solstace) में प्रवेश करने के अवसर पर शुरू से ही इस दिन को एक लोक उत्सव(मकर सक्रांति) के रूप में मनाया जाता रहा है ! पंजाब भर में भी इस दिन अनेक मेले लगते हैं, अत: सर्वथा सम्भव है कि समय बीतते बीतते इन दोनों ही अवसरों को, एक ही दिन समाहित कर दिया गया हो !  


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