भाग 6
पूर्व प्रकाशित अंक
तू जहाँ जहाँ रहेगा.... भाग 1
तू जहाँ जहाँ रहेगा.... भाग 2
तू जहाँ जहाँ रहेगा.... भाग 3
तू जहाँ जहाँ रहेगा.... भाग 4
तू जहाँ जहाँ रहेगा.... भाग 5
और फिर जैसा कि अपेक्षित
था हाज़ी साहब के साथ उस पहली मुलाकात के बाद लगभग एक मास के अंतराल में राधिका और
उनके बीच पांच से छह साक्षात्कार और हुए थे | यूँ तो राधिका अब पूरी तरह से ठीक थी
और किशन के साथ उसका ग्रहस्थ जीवन भी भली भांति शुरू हो चुका था | परन्तु जैसा कि
प्रारम्भ में ही नियत हुआ था, एक अंतिम हाजिरी साबिर साहिब की दरगाह में भरनी
अत्यंतावश्यक थी, जिससे इस समस्या को इसके मूल से ही निपटाया जा सके !
नवम्बर का अतिम
सप्ताह इसके लिए चुना गया और फिर एक दिन दो गाडिओं में से एक में प्रदीप, किशन
त्यागी जी, हाज़ी साहिब और मैं तथा दूसरी में राधिका एवं उसके परिवार तथा ससुराल
पक्ष की कुछ महिलाएं सवार हो कलियर शरीफ के लिए रवाना हो गए |
उत्तर प्रदेश में रूडकी
शहर की सीमा पार करके हरिद्वार की तरफ लगभग 24 किमी दूर पीरान कलियर गाँव पड़ता है,
और यदि हरिद्वार की तरफ से आया जाए तो यह दूरी लगभग 12 किमी के आसपास है | गुडगाँव
से चलते हुए और रास्ते में हाज़ी साहिब को भी लेते हुए हमारे लिए कम से कम छह से
सात घंटे तो लगने अवश्यम्भावी थे ही ! स्वाभाविक ही था कि यह सारा रास्ता बातचीत
करते हुए ही कटता | पहले दिन जो हमने राधिका-रुखसाना और हाज़ी साहब का जो वार्तालाप
देखा था, उससे मन में कई प्रश्न उमड़-घुमड़ रहे थे, अत: उन शंकाओं के निवारण के लिए
इससे बेहतर मौका हमे और कब मिल सकता था|
और फिर जब हमारी
गाडी, दिल्ली और गाज़ियाबाद की भीड़-भाड़ पार करके मेरठ रोड पर आई, सबसे पहली शंका मैंने
हाज़ी साहिब के सामने रखी कि, इस बात का पता कैसे चले कि कोई व्यक्ति किसी मनोरोग
से पीड़ित है अथवा किसी ऊपरी हवा के प्रभाव में है ? आखिर आप लोगों के पास इसे जांचने
का पैमाना क्या होता है?
बहुत ही संयत और सधे
शब्दों में हाज़ी साहिब ने जवाब दिया. “ सबसे पहले हम मरीज़ से कुछ साधारण से सवाल
पूछते हैं मसलन, कभी कभी तुम्हे अचानक ही कुछ डर महसूस होता है? रात को डरावने
सपने आते हैं?, गर्दन में पीछे की तरफ कुछ दर्द महसूस होता है? कभी यूँ ही अचानक
से अपने आप को या अपने किसी अज़ीज़ को चोट पहुँचाने की इच्छा होती है? कुछ
ऐसे काम करने का मन
करता है जिन्हें करने की तुम्हारे परिवार में रवायत(संस्कार) नही है? कुछ प्रश्न परिजनों
से भी किये जाते हैं जैसे कि पिछले कुछ समय में आपने मरीज़ के व्यवहार में अचानक से
ही कोई परिवर्तन महसूस किया हो? कभी किसी बात को मना करने पर पूर्व की अपेक्षा ऐसा
व्यवहार जिसकी आपने कल्पना न की हो? खान-पान की आदतों में कोई परिवर्तन? अचानक से
ही गुमशुम रहना आदि आदि “
कुछ देर फिर इन्ही बातों पर ही चर्चा चलती रही, तभी अचानक त्यागी
जी ने अपनी जिज्ञासा जाहिर कि, “ मियाँ जी, पहली ही मीटिंग में उस रूह ने कहा था
कि उसे पांच साल हो गए हैं इस घर में... इतना समय वो शांत कैसे रही और किसी की पकड़
में भी कभी कुछ नही आया... कहीं यह सब उसका झूठ तो नही था ?
“नही”, शांत परन्तु सधे शब्दों में हाज़ी साहिब ने कहना जारी रखा,”
यह सब झूठ और छल प्रपंच सब इस फ़ानी दुनिया तक ही महदूद हैं, उस दुनिया में यह सब
नही चलता | हाँ, कभी-कभार कोई आत्मा अपने बचाव के लिए गुमराह जरुर करने का प्रयास
कर सकती है, पर झूठ नही बोलती ! और यदि कोई वादा करती है तो उसे पूरा भी जरुर करती
है| उनका भी एक अलग संसार है, और उसके भी कुछ कायदे क़ानून हैं, जिन्हें मानना सभी
के लिए लाजिमी है !
अब जैसे इसी मुआमले में मैंने रुखसाना को आप सब के जाने के बाद भी
कई बार तलब किया था और उससे सभी कुछ तफ़सील से पूछा था| उसने बताया कि प्रेत योनि
में आने के बाद कुछ समय तो वो यूँ ही अपने गुस्से में भटकती रही| अब्दुल और जीवेश
के खात्मे के बाद जब उसका इन्तेकाम पूरा हुआ तो उसे एक जगह टिकने की जरुरुत महसूस
हुई| उसके कुछ परिचित गाँव से बाहर के खेतों की तरफ कुछ पेड़ों पर अपना घर बनाये
बैठे थे, सो उसने भी एक पेड़ पर अपना घर बना लिया | ऐसे ही कुछ समय निकल गया, धीरे
धीरे उसने देखा कि उसके कुछ साथी किसी न किसी के शरीर में अपना घर बना लेते हैं तो
उसकी भी कुछ ऐसी इच्छा हुई| और उसे मौका मिला राधिका के रूप में !
राधिका तथा उसकी कुछ सहेलिआँ हर दोपहर अपने पिता को खाना देने के
लिए प्रतिदिन खेतों में आती थी ! हँसती-खेलती लड़किओं को देख उसे भी अपने गुजरे दिन
याद आ जाते थे ! अगर उसकी ज़िन्दगी में यह हादसा नहीं हुआ होता तो शायद वह भी इसी
प्रकार अपने पिता के लिए खाना ले कर जाती| उसके भी माँ-बाप, भाई-बहन थे, छोटा ही
सही पर हंसता-खेलता एक घर-परिवार था ! रोज़ उन्हें इस तरह देख उसका ज़ी भी ललचाने
लगा कि उसे भी अब एक घर चाहिए! राधिका और उसकी सहेलियां कुल जमा चार लडकियाँ थी वो, उनमे से दो के साथ कोई न कोई
कवच था, अत: उनकी तरफ तो वो जाने का साहस न कर पाई! पर हाँ, राधिका और इसकी एक
सहेली खाली थी एकदम| पहले वो दूसरी के पास गई, एक दो दिन रही पर उसे कुछ मज़ा नही
आया | राधिका के गहरे घने और काले बाल उसे शुरू से पसंद थे क्यूंकि उसके खुद के
बाल भी कभी इसी प्रकार के थे, जिन्हें वो घंटों लगा संवारा करती थी ! उसके बालों
की कशिश ने उसे इस कदर प्रभावित किया कि उसने अब राधिका के शरीर में ही अपना घर
बना लिया |
पाँच साल वो शांत इसलिए रही क्यूंकि उसे कोई शिकायत नहीं थी राधिका
से! राधिका भी उसका कहा मान जाती थी ! कई दफा उसके अजब व्यवहार को भी घर वाले यूँ
ही जाने देते थे ! कई बार रुखसाना के कई अन्य संगी-साथी भी अब वहाँ आने लगे थे, कई बरस सब
कुछ सही चलता रहा! समस्या हुई राधिका के विवाह के बाद ! क्यूंकि वो बिचारी कुँवारी
ही मर गयी थी अत: उसके भी कुछ अरमान थे, इसलिए अकारण नहीं कि रुखसाना ने भी खुद को
किशन की पत्नी मान लिया!
अब वो राधिका को कैसे किशन के करीब जाने देती? इधर राधिका मे भी
शादी के बाद परिवर्तन आये थे, अत: उसकी तरफ से भी अनजाने में ही सही विरोध होने
लगा रुखसाना का ! अब किशन को पाने की ख्वाहिश रुखसाना में इस कदर घर बना चुकी थी कि
वो राधिका का जिस्म हथियाना चाहती थी, जिससे यह रोज़ रोज़ का झगड़ा समाप्त हो! अब
इतना इल्म उसमे नही था कि बिना राधिका के वो भी बेघर ही हो जाएगी ! अभी तो उसे
लगता था कि बस इस शरीर में से राधिका को हटाकर किसी प्रकार से वो उसकी जगह ले ले!
हाज़ी साहेब अपनी ही रो में बोले जा रहे थे और हम सब मन्त्र्मुध से
हुए उनकी बाते एकाग्रचित्त हो सुने जा रहे थे |
“ राधिका के मजबूत मानसिक विरोध के चलते अभी तक तो वो सफल नहीं हो
पाई थी, परन्तु यदि कहीं राधिका को ससुराल वालों का भरपूर साथ न मिला होता तो वह अवश्य
ही कमज़ोर हो जाती, फिर ऐसे में रुखसाना के लिए उसके दिमाग को कब्जा लेना आसान हो जाता,
फिर वह राधिका को अपने रास्ते से हटाने के लिए कई न कोई युगत लगाती रहती, जब तक कि इसमें सफल न हो जाति, भले ही राधिका के हटने के बाद उसका शरीर भी
समाप्त हो जाता !”
प्रदीप जो अभी तक चुप बैठा था, अचानक बोल पड़ा, “वो काँच की चूड़ियाँ
टूटी हुई, वो एकदम से क्यूँ हटवाई थी?”
हाज़ी साहेब के पास हमारे हर सवाल का जवाब मौजूद था,” जब हम किसी रूह
को प्रताड़ित करते हैं तो वह कमजोर हो जाती है, ऐसे में उसका प्रयास होता है कि
कैसे भी वो अपने कब्जाए हुए शरीर को चोट पहुँचा उसका कुछ खून निकाल कर पी ले....
इससे वो एकदम फिर से शक्तिशाली हो जाती हैं! इससे हमारा काम भी कुछ समय के लिए
मुश्किल हो जाता है, जब तक हम उन्हें दौबारा से कमजोर करने में सफल न हो पाएँ वो
हमारे काबू से बाहर हो जाती हैं ! इसलिए तुरंत ही सभी नुकीली वस्तुओं को बाहर निकाल
फेंकते हैं! कई दफा तो मरीज़ के हाथ भी पीछे की और बाँधने पड़ जाते हैं कि खुद को ही
काट कर उसका खून न चूस ले ! गनीमत जानिये कि अल्लाह के करम से ऐसी कोई नौबत नहीं
आई !
यानि इनके लिए भी अनुभव बहुत काम की चीज़ होती है !
गोधूली की बेला का हल्का हल्का आभास होने लगा था | हमारे पीरान
गाँव पहुँचते पहुँचते, शाम की धुन्धलिका पूरे वातावरण को ही अपने आगोश में लेने को
तत्पर थी ! तमाम झंझावतों से पार पा आखिर हम कलियर शरीफ पहुँच ही गए | दिखने में
साधारण सा ही गाँव है ! उत्तर प्रदेश के अन्यान अन्य गाँवों की ही भांति तरक्की से
एकदम अछूता ! गाँव में अंदर की तरफ को जाती कच्ची-पक्की सड़क और दूर तक फैला विशाल ऊसर
मिट्टी का मैदान, जिसमे कहीं-कहीं छितरे हुए रुखी घास के पैबंद से नजर आ जाते हैं|
हाँ, ऐन गाँव के मुख्य प्रवेश द्वार पर एक विशालकाय गेट बना हुआ है, पत्थर लगा
हुआ, जो बताता है कि गाँव कुछ असाधारण है! मौका सही नही था कि गाडी रुकवा गेट की
फोटो लेने का प्रयास करते! राह भर हाज़ी साहब ही रास्ता दिखलाते चल रहे थे! उनके
निर्देशानुसार कारों को पहले बड़े इमाम साहब की खानकाह की तरफ बड़ा दिया गया ! यहाँ
दो सूफी दरवेशों इमाम साहब और शाह बाबा की मजारें हैं! ऐसी रवायत है कि हजरत साबिर
अली साहब की दरगाह में जियारत से पहले इन सूफी दरवेशों की दरगाह पर हाजिरी भरनी
पडती है जिनमे परस्पर मामा भांजा का रिश्ता था ! सबसे पहले हमने यहं अपने अकीदे को
अदा किया और दरगाह के सेहन में लगी जालिओं में अपनी मन्नत के धागे को बाँधा ! कई
रस्सिओं पर कागजों पर लिखी हजारों अर्ज़ींयाँ लोग अपनी मनोकामनाओं की पूर्ती हेतु
बाँध कर टांग गए थे इस आस में कि हजूर की सिफारिश से उनके बिगड़े काम सँवर जायेंगे
!
“खुसरो सोई पीर है, जो जानत पर पीर!
जो पर पीर न जानई, सो काफ़िर-बेपीर!!”
जो पर पीर न जानई, सो काफ़िर-बेपीर!!”
भले ही मेरी तरह आप भी यह मानते
हों कि अपने देश में धर्म अब एक व्यापार बन चुका है और उसी की तरह सब प्रकार की
चालाकियां और तिकड़मबाजियां अब इसमें भी घर कर चुकी हैं, पर ऐसी जगहों पर आम लोगों की इतनी
अपार आस्था देख कर लगता है कि यदि ये आस्था भी उनके पास ना हो तो इनका जीवन और भी
दुरूह और दुश्वारियों से भारी हो जाये | इसी बहाने, कम से कम किसी अकीदे तथा चमत्कार की डोर से ये बंधे तो
रहते हैं, और इस बात
से ही कुछ संतोष प्राप्त कर लेते है कि हमने अपनी दुःख तकलीफें बाबा तक पहुंचा दी
हैं,
इसलिए अब
तो कुछ हल निकल ही आयेगा | ऐसी आस्था
और अपनी पुकार सुनी जाने का जज्बा ही उन्हें जीने के लिये जरूरी संबल प्रदान करता
रहता है | वो, कहते हैं
ना कि गम बाँटने से उसका एहसास कम हो जाता है, तो बस, फिर कोई दीन-दुखी और मज़लूम जब
ऐसे किसी दर पर अपनी अर्जी लगा आता है तो उसके आने वाले दिन इस सुखद एहसास में कट
जाते हैं कि अपने तईं वो जो कर सकता था कर दिया, अब तो डोर उसके हाथ में ही है | अपनी नियति का तो मनुष्य प्रतिकार
नही कर सकता मगर उसे बदलने का हर संभव यत्न तो वो करता ही रहता है | धर्म और आस्था की आपनी सीमायें और
समस्यायें तो हैं, मगर यदि
इनके हाथों से इसका आलम्बन भी ले लिया जाये, तो निश्चित ही वर्तमान
परिस्थितियो में आम जन का जीवन और भी ज्यादा दुरूह और दुष्कर हो जायेगा |
दरगाह काफी बड़ी और खुली जगह में
बनी है, इस पूरे क्षेत्र में लोगों की बहुत आस्था है साबिर साहब में इसलिए हर धर्म के मानने वाले, यहाँ आपको दिख जाते हैं | दरगाह के परिसर में ही एक मदरसा
भी चल रहा है | एक एक कर हम सबने वहाँ अपना माथा टेका, राधिका के लिए तो खासतौर पर
कुछ आयतें पड़ फूँका गया ! अंत में यहाँ से निवर्त हो हमने अपना रुख अगले और महत्वपूर्ण स्थल
हजरत साबिर पाक की दरगाह की तरफ किया |..................
जारी
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