Wednesday 13 January 2016

लोहड़ी (Lohri)


सुबह सवेरे उठ कर जैसे ही बालकनी में आया गली में दूर किसी घर के आगे खड़े बच्चों की टोली को “सुंदर मुन्द्रियो हो....” गाते सुन कर लोहड़ी माँगते देखा ! ओह ! एक क्षण में ही अपना बचपन आँखों के आगे कौंध गया ! जैसे ही वो बच्चे उस घर से फारिग हुए मैंने आवाज देकर और साथ ही हाथ के इशारे से अपनी तरफ बुला लिया ! पहले तो बच्चे घबराए, सकुचाये... आजकल कौन खुद बुलाता है ? पर जब देखा कि बार बार इसरार कर रहा हूँ तो शुरुआत में पहले सहज ही कुछ शरमाते और आखिरकार फिर हिम्मत बटोर कर मेरे घर के दरवाजे तक आ ही गये !



तब तक मैं भी सीढ़ीयां उतर कर बाहर तक पहुँच गया था, मैने ध्यान दिया कि मेरे स्वयं ही बुला लेने पर वो बच्चे अभी भी थोड़े शंकित ही थे कि क्या मैं उन्हें वास्तव में लोहड़ी ही देना चाहता हूँ या उनके पैसे खींच कर उन्हें दांत-डपट कर भगा देना चाहता हूँ ! परन्तु जब मैंने मुस्करा कर उनका हौसला बढ़ाया, तब जाकर कहीं  उनका डर कुछ कम हुआ ! और फिर आखिरकार हिम्मत बटोर कर झुण्ड में से एक छोटी सी लडकी किसी बड़े बच्चे के पीछे छिपी छिपी सी बोली, “ अंकल लोड़ी दे दो... लोड़ी ”

अरे ऐसे कैसे... ? पहले ढंग से मांगो तो सही !

फिर उनका लीडर आगे आया और जोर से बोला, “ सुंदर मुंदरिये... “

बाकी सभी स्वेत स्वर में एक साथ चिल्लाये, “ हो ! ”

“ तेरा कौन बिचारा “

 “ हो !”

इसी प्रकार की दो एक और पंक्तियाँ, और फिर पुन: ........ अंकल लोड़ी दे दो !

इससे आगे शायद उन्हें कुछ आता भी नहीं था !

खैर, उन्हें पैसे देकर विदा किया ! यूँ अचानक ही बुला लिए जाने और आशा से अधिक पैसे मिल जाने की ख़ुशी में उछलते कूदते वो बच्चे अपने बालसुलभ उत्साह के साथ गली के किसी और बंद दरवाजे के आगे जाकर चिल्लाने लगे, “ सुंदर मुंदरिये .... हो  !”

एक कप गर्म काफी का बना मैं अपनी आराम कुर्सी पर जा बैठा ! काफी की उठती खुश्बुदार भाप ने जैसे सुबह को और भी बेहतरीन बना दिया और मैं यूँ ही आँखे बंद कर अतीत की लोहड़ी की उन पुरानी यादों में खो गया...

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“ सुंदर मुन्द्रिये .... हो !”

लखनऊ का श्रृंगार नगर का इलाका था, अधिकतर पंजाबी बसावट ! यूँ तो वहाँ सभी त्यौहार मनाये जाते थे पर लोहड़ी की बात ही अलग थी !  क्यूँ ? क्यूंकि यह सामूहिक उत्सव था ! अधिकतर त्यौहार लोग अपने घरों में अपने परिवार संग ही मनाते हैं पर लोहड़ी का त्यौहार तो सड़क के चौक पर बड़ी सी आग जलाकर मनाया जाता था ! जनवरी लगते ही, पेड़ टहनियां, उपले, साइकलों के टायर से लेकर स्कूटर मोटर साइकलों तक.... गर्ज यह कि ऐसा कुछ भी मिल जाये जो जल सकता हो, लोहड़ी पर काम आ जाता था ! और एक नियत स्थान पर उसका ढेर लगना शुरू हो जाता था ! लोहड़ी के दिन तक कई क्विंटल ज्वलन पदार्थ इकट्ठा हो जाता था ! जिसको जो मिलता था, वहीँ डाल जाता था ! घर के पुराने सामान से लेकर टूटी-फूटी खिड़कियाँ और दरवाजे तक जो निकलता था, वो उस अग्न में होम होने के लिए इकटठा हो जाता था ! पास-पडोस के मोहल्लों के साथ यही सबसे बड़ी प्रतियोगिता होती थी कि उनका सामान ज्यादा है या फिर हमारा ! उनकी लोहड़ी रात कितने बजे तक जली और हमारी कितने बजे तक !

लोहड़ी की शाम, उत्सव का माहौल होता था, पास पडोस के सभी परिवार अपनी अपनी थाली सजाये चौक पर ही आ जाते थे ! सभी के आ जाने पर मोहल्ले के एक सबसे सम्मानीय बुजुर्ग अरदास करते थे, और फिर जैसे ही उस ढेर में आग लगाई  जाती थी, सभी अपने अपने परिवार के साथ उस अग्नि की  परिक्रमा करते थे ! साथ ही साथ अपनी थाली में कुछ सामान की आहुति उस अग्नि को देकर नमस्कार करने के बाद, जितने बड़े-बूड़े होते थे पाँव छूकर उनका आशीर्वाद लिया जाता था ! तब सिर्फ अंकल –आंटियाँ नही थे, सभी के संयुक्त दादा-दादी, चाचा-चाची..... से लेकर वीरजी-परजाई जी होते थे.... सभी को पैरी पौना करना और मिलने वाले आशीर्वाद रब राखा. वाहेगुरु मेहर करे! पर सबसे अच्छे वो लगते थे जो कुछ साथ में नकद नारायण भी हथेली पर रख देते थे ! और, फिर इसके बाद साथ ही साथ उस प्रसाद का सभी में वितरण !

पता नही कब से इसके साथ यह रीत भी जुड़ गयी कि लोहड़ी मुख्यत: उनकी है जिनके परिवार में कोई शादी हुई हो अथवा जिनके घर लड़के ने जन्म लिया हो, जबकि पारम्परिक तौर पर यह मौसम से सम्बन्धित त्यौहार है, और इसे इसी रूप में ही मनाना श्रेष्ठकर है ! हाँ, इतना अवश्य है कि सभी अग्नि की परिक्रमा करते हुए अगली लोहड़ी के लिए कोई न कोई मन्नत भी अवश्य ही मांग लेते हैं और पूरी होने पर लकड़ी का बना चरखा अग्नि को समर्पित करने का रिवाज तो मैंने स्वयं भी अपने आस पास देखा है ! 
        
और इधर हम बच्चे स्कूल से लौटते ही जल्द से जल्द कपड़े बदल, केवल खाना गटकते भर ही थे... ट्यूशन का उन दिनों कोई चलन नही था, अत: तुरंत ही उन दोस्तों के साथ मिल जाते थे जिनके साथ लोहड़ी मांगने जाना है ! सभी के किरदार नियत थे, किसने क्या बोलना है ! किसने पैसे लेने है ! यदि कोई पैसे दे तो क्या कहना है ! कम दे तब ! ज्यादा दे तब ! और यदि न दे तो क्या कह कर वहाँ से तुरंत ही भाग जाना है !
फिर शाम होते होते सारे पैसों का बंटवारा हो जाता था ! और हम सब उन्हें अपनी मर्जी के अनुसार खरचने या फिर रखने को स्वतंत्र !

ऐसे ही एक दिन लोहड़ी मांगते मांगते एक ऐसे घर के आगे जा खड़े हुए जो अभी नया नया ही उस मोहल्ले में आया था ! कुछ देर में दरवाजा खुला, एक अधेड़ उम्र की औरत हंसता मुस्कराता चेहरा एकदम शालीन व्यक्तित्व.... जैसे हमारे ही स्कूल की प्रधान्याधापिका हों ! उन्होंने हमे देख मुस्करा कर स्वागत किया, पूछा कहाँ से आये हो? उनके चेहरे के भावों से लगा शायद उन्हें यह जानकर अच्छा लगा की हम सब उनके मोहल्ले के बच्चे ही है ! उन्होंने हमें अंदर बरामदे में बुला कर बैठने को कहा, सहमे सहमे से हम एक दूसरे का मुंह ताकते इंतज़ार करने लगे कि पहल कौन करे ! परन्तुं उनका आग्रह इतना प्रबल था कि सम्भवतः हम सब ही वहीं बैठ गए ! फिर उन्होंने कहा, “ अच्छा अब मुझे लोहड़ी मांग कर दिखाओ !”

उस समय हम लोगों को बस एक मौका ही चाहिए होता था, और अपने ही भरे-पूरे झुण्ड के कारण कोई श्रम संकोच भी नही ! सो हम सब शुरू हो गए और जितना कुछ हमे आता था सब सुना दिया ! सुन कर वो मुस्कराई और फिर बोली, “ जितना तुम लोगों ने सुनाया है उतना तो प्रत्येक के लिए दस-दस पैसे का ही बनता है, पर यदि तुम लोग मेरे पास बैठो और लोहड़ी का पूरा इतिहास सुनो तो सबको एक एक रुपैया !

अब मर्जी तुम्हारी ! दस दस पैसे चाहिए या फिर एक एक रुपैया ? ”

दस पैसे भी तब छोटी बात नही थी, कई तरह की गोली-टाफी आ जाती थी, पर हर एक को एक रुपया !1 शायद तब तक हम में से किसी को एक दिन में पूरा एक रूपया कभी खरचने को भी नही मिला था !

इसे ठुकरा घर-घर जा फिर से माँगना शुरू करें, या फिर यहीं रुक इनकी बात सुनें ! विकट संकट था.... उसमे हम सब का शाम होने से पहले तक एक एक रुपैया बन पायेगा... गारंटी नही थी, ज्यादा भी बन सकता था और कम भी, पर यहाँ एक रुपैया तो निश्चित ही था ! अत: स्पष्ट बहुमत के आधार पर हम सब ने वहीं रुकने का फैसला किया और कहा, “ आंटी हम रुकेंगे !”     वो एक पल मुस्कराई, एक बच्चे को निर्देश दिया अंदर से एक कुर्सी उठा कर ले आने का और हम सब आसपास यूँ ही जिसको यहाँ जगह मिली आसन लगा सिमट आये !

और फिर उन्होंने कहना शुरू किया, “ लोहड़ी का त्यौहार कब से शुरू हुआ, कोई नही जानता, सदिओं से शायद ये मनाया जाता रहा है ! ऐसा लगता है जैसे सिन्धु घाटी की सभ्यता के साथ ही यह शुरू हो गया हो ! सर्दी अपने पूरे सितम पर जब होती है, खरीफ की फसल यानि गेहूं, मक्का, चना और सरसों ऐसी अवस्था में होती है, जिसे अधिक देखभाल की आवश्यकता नही पडती ! तब ऐसे समय में किसान आग जला कर और मूंगफली और तिल से बनी रेवड़ीयां बांटकर और खाकर अपनी अच्छी फसल की कामना करते है और खुशियाँ मनाते हैं ! सर्दी के मौसम के हिसाब से सबसे कड़क पौष मास की समाप्ति के आखरी दिन इस त्यौहार को मनाने के पीछे संभवत: यही उद्देश्य रहा होगा ! मोटे तौर पर यह फसलों से जुड़ा त्यौहार बसंत के आगमन और सर्दी को दूर भगाने के उत्सव के रूप में ही मनाया जाता रहा होगा ! तभी तो इसके साथ साथ ही पोंगल और बीहू वगैरह भी देश के कुछ दूसरे हिस्सों में मनाये जाते हैं ! पूरा पंजाब, पूरा... यानि वो हिस्सा भी जो अब पाकिस्तान में चला गया है, इस त्यौहार को मनाता है फिर विभाजन के बाद पंजाबी यहाँ यहाँ बसते गए अपने साथ-साथ अपने त्यौहार भी लेते गए और आज कम से कम ज्यादा नही तो दक्षिण भारत को छोड़कर बाकी तो सभी हिस्सों में कहीं कम तो कहीं ज्यादा इसे मनाया ही जाता है !

और साथ ही ढोल की थाप के साथ धूम होती है , “ सुंदर मुंदरिये..... हो !”

अब यह गीत लोहड़ी के साथ कैसे जुड़ा, सही सही तो किसी को नही मालूम.... बस कुछ जनश्रुतियाँ हैं, जिनमे से सबसे प्रमुख है कि आज के पाकिस्तान वाले पंजाब के हिस्से में, अकबर के शासन काल के दौरान, दुल्ला  भट्टी नाम का एक मुस्लिम युवक था, जो व्यवस्था से दुखी हो डाकू बन गया ! अमीरों को लूटता था, पर गरीबों के लिए वो पंजाबी राबिनहुड सरीखा ही था !

एक बार उसे मालूम हुआ कि कुछ अफगानी सिपाही, दो हिंदु लड़कियों को उठा कर ले जा रहे हैं, दुल्ला ने घात लगा उन पर हमला किया और उन लडकियों को उनकी गिरफ्त से छुड़ा कर उनके माता-पिता के हवाले कर दिया ! पर अब उनसे शादी कौन करेगा ? इसका इंतजाम भी दुल्ला ने ही किया और स्वयम अपने खर्चे पर मुस्लिम होने के बावजूद पूरे हिंदु रीति रिवाजों से दो हिंदु लडकों से उनका विवाह करवाया ! बस, फिर उसके बाद से बच्चे टोलियाँ बना कर घर घर जा कर इस गीत को सुना दुल्ला भट्टी को याद करते हैं !
 
लो अब यह पूरा गीत सुनो और यदि समझ न आये तो उसका मतलब भी पूछते जाना !

अब तक हम सब बच्चों की पूरी रुचि इसमें बन चुकी थी अत: हम सब ने पूरे जोर के साथ हुंकार भरी, “ जी आंटी “  और साथ ही गर्दने हिला अपनी सहमति व्यक्त की !

सुंदर मुंदरिये... हो !               (Sundari Mundri O beautiful girls !)

तेरा कौन विचारा हो  !               (Who will think about you)

दुल्ला भट्टी वाला ... हो !          (Dullha of the Bhatti clan will!)

दुल्ले ने धी वियाही  हो!              (Dullha’s daughter got married!)

शेर शक्कर पाई हो !                  (He gave one Ser (kg) of sugar!)

कुड़ी दा लाल पटाका  हो            (The girl is wearing a red suit!)

कुड़ी दा शालू पाटा हो !               (But her shawl is torn!)

शालू कौन समेटे ... हो !             (Who will stich her shawl!)

चाचे चूरी कुट्टी  हो !                 (The uncle made churri!)

जमींदारा लुट्टी  हो !                  (The landlords looted it!)

जमींदार सिधाए हो !                   (Landlords are beaten up!)

बड़े भोले आये ... हो !               (Lots of simple-headed boys came!)

इक भोला रह गया !                    (One simpleton got left behind!)

सिपाही पकड़ के ले गया !           (The soldier arrested him!)

सिपाही ने मारी इट्ट !              (The soldier hit him with a brick!)

सानू दे दे लोड़ी !                      (Give us Lohri!)

ते तेरी जीवे जोड़ी !                   (Long live your pair!)

भांवे रो ते पांवे पिट्ट !!!            (Whether you cry or bang your head later!)

ऐसा भी नही कि सिर्फ यही एक लोक कथा इस त्यौहार के प्रति प्रचलित है ! एक अन्य जनश्रुति के अनुसार कुछ लोग इसका संबंध संत कबीर की पत्नी लोई से भी मानते हैं क्यूंकि आज भी पंजाब के अधिकतर हिस्सों में इसे लोहड़ी न कहकर लोई भी कहते है ! एक और किंवदती के अनुसार लोई यानि लोहे का बना तवा, जिस पर एक बार में अनेक रोटी पक सकती हैं ! इसका अर्थ हुआ कि एक कम्युनिटी किचन की तरह, जिसमे सभी लोग आपस में मिल बाँट कर खाना बनाएं और खाएं ! एक मजेदार किवंदती यह भी है कि होलीका और लोहड़ी दो सगी बहने थी, जिसमे से एक तो होली पर जल कर मर गयी थी, परन्तु दूसरी बच गई थी !



कहानियाँ जो भी हों, परन्तु इतना अवश्य है कि इस दिन सदा से ही गुड और तिल खाना शुभ माना जाता रहा है, सो तिल की बनी रेवड़ी से बना शब्द तिललोहड़ी अपभ्रंश होते होते कालान्तर में केवल लोहड़ी बन कर रह गया ! 
अपनी बात खत्म करते हुए आंटी ने आवाज लगा अपने नौकर को बुलाया जो एक बड़े से थाल में मूंगफली, रेवड़ी, और बहुत से पापकार्न भर कर ले आया ! अच्छी बात यह रही कि उन्होंने हमे छूट भी दे दी कि अपनी जेब में भी भर सकते हैं और साथ साथ ही हमे एक एक रुपये का नवां नकोर नीला नीला नोट भी दिया, जो हम सबको इन सब खाने की वस्तुओं से भी ज्यादा प्रिय लगा ! इससे पहले कि आंटी कुछ और कहने का प्रयास करती हम सब ने वहाँ से निकलने के लिए बहाना बनाया, “ अच्छा आंटी जी, हुण चलदें आँ ! मम्मी लभदी होएगी !” ( अच्छा आंटी, अब चलते हैं, मम्मी अब ढूंढ रही होगी !) 

आंटी भी अनुभवी थी, उठते हुए बोल ही उठी, “ जाओ खसमां-नूं-खाणयो, मैनू वी सब पता ए जेड़ी तुहाडी माँ तुहानू लबदी होवेगी, कंजरों बस रुपैया मिलण तक ही तुसी टिक के बैणा सी !“ ( जाओ जान के दुश्मनों, मुझे भी सब पता है कि कौन सी तुम्हारी माँ तुम्हे ढूंढ रही है, बस तुमने इस रुपये के नोट के मिलने तक ही शान्ति से बैठना था !)  

यादें जब याद आती हैं तो साथ एक उदासी सी भी ले आती हैं, आज की इन पुरानी यादों ने मुझे भी कुछ भावुक कर दिया ! आँख खोल कर देखा तो मेरी काफी ठंडी हो चुकी थी ! अब इसे गर्म करने का कोई लाभ नही, सो फटाफट एक नई काफी बना कर आज शाम के लिए मुझे भी कुछ सामान ले कर आना है ! समाज भले ही अब वैसा नही रह गया, परन्तु इस प्रकार के त्यौहार ही इसे अब भी बचा सकते है और इकट्ठा करके रख सकते हैं !
  
अत: इसी भावना के साथ आप सब को लोहड़ी की बहुत बहुत शुभकामनाएं !!! Happy Lohri !!!







      

   

1 comment:

ziyyaraedutech said...

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